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जानकीपुरम विस्तार से लेकर इंजीनियरिंग कॉलेज चौराहा, गोमतीनगर, अमीनाबाद, रकाबगंज, शुक्ला चौराहा और नहर रोड तक — पानी ने खोला प्रशासन का नकाब

"ये पानी नहीं, इंतज़ार की सज़ा है,


हर गड्ढा कह रहा है — ‘तुम्हारा विकास यहीं गिरा है।’"


जानकीपुरम विस्तार की सड़कों पर पानी ऐसा जमा था मानो कोई तैराकी प्रतियोगिता हो रही हो। गड्ढे इतने गहरे कि दोपहिया वाहन फंसते ही रह गए, और पैदल चलने वाले घुटनों तक पानी में भीगते रहे। स्थानीय लोगों का कहना था — “यहाँ सालों से नालों की सफाई नहीं हुई, और आज जो पानी आया उसने पुरानी सच्चाई सामने ला दी।”

इंजीनियरिंग कॉलेज चौराहा का हाल भी इससे कम शर्मनाक नहीं था। चौड़ी और चमकदार दिखने वाली सड़कें जब बरसात में डूब गईं, तो छात्रों और स्थानीय दुकानदारों की उम्मीदें भी पानी की तरह बह गईं। गोमतीनगर के ‘रंगीन’ इलाके में भी गलियां तालाब बन गईं, जिससे रोज़ की रूटीन की जिंदगी त्रासदी में बदल गई।


अमीनाबाद और रकाबगंज की तंग गलियां और बाजार भी पूरी तरह जलमग्न हो गए। यहाँ के छोटे दुकानदार बाल्टियों से पानी निकालते रहे, जबकि प्रशासन कहीं दूर अपनी जिम्मेदारी से दूरी बनाता रहा। शुक्ला चौराहा पर गड्ढों ने न सिर्फ दोपहिया चालकों को चोटिल किया, बल्कि पैदल यात्रियों के लिए भी जगह-जगह खतरा पैदा किया। नहर रोड पर तो पानी इतना जमा हुआ कि लोग सड़क पहचानने में असमर्थ थे, गाड़ियों के लिए रास्ता ढूंढना मुश्किल हो गया।


LDA, नगर निगम, जल संस्थान और PWD के बीच आपसी नोक-झोंक और जिम्मेदारी टालने की प्रवृत्ति बार-बार सामने आई। अधिकारी बयान देते रहे — “सफाई पूरी हुई थी,” जबकि जनता कह रही थी — “सफाई सिर्फ रिपोर्ट में हुई, रास्तों पर नहीं।”

बारिश आई तो सिस्टम की नाकामी साफ झलकने लगी — जहां हर विभाग ने दूसरों पर ठीकरा फोड़ा, वहीं जनता जलमग्न गलियों में फंसी रही।


"बारिश आई तो याद आई हर चुनाव की दहाई,

विकास के झूठ के पीछे छुपी यह सच्चाई।"


अब सवाल यही है — जब लखनऊ में हर साल यही मंजर दोहराया जाता है, तो क्या यह स्मार्ट सिटी की पहचान है? क्या यह वही ‘विकास’ है जिसकी बातें दीवारों प08र लिखी जाती हैं, और सड़कें नदी बन जाती हैं?




 
 
 

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