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बदलते जमाने के साथ पुरानी पद्वति से गुड़ बनाने की कला दोहराई

रतसर (बलिया)

बदलते जमाने के साथ पुरानी पद्वति से गुड़ बनाने वाली व बैलों से चलने वाली कोल्हू इतिहास के पन्नों में तब्दील हो गई है। करीब ढाई दशक पूर्व कोल्हू से बनने वाली गुड़ की सोंधी खुशबू लोगों को अपनी ओर बरबस ही खिंच लाती थी।

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आज जिस चीनी को देखकर लोगों की लार टपकती है वहीं घर के बड़े बुजुर्ग इसे रसोई में देखकर आग बबूला हो जाया करते थे।कोल्हू का नाम सुनते ही गन्ने के रस व गुड़ की सोंधी खुशबू मन मस्तिष्क में घुलने लगती है। जाड़े के दिनों में हर दरवाजे पर गन्ना पेराई के दौरान कच्चा रस पीने की लोगों में होड़ मची रहती थी लेकिन यह पुराने जमाने की बात हो कर रह गई है। गन्ने की पेराई मशीन के माध्यम से होने लगी है। दो दिन का काम दो घंटे में हो जाता है।

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वैसे दो दशक पहले की अपेक्षा गन्ने की पैदावार में भारी कमी आई है। लेकिन ग्रामीण आंचलों में लगभग हर दरवाजे पर कोल्हू देखने को मिल जाते है। हालांकि कोल्हू नई पीढ़ी के बच्चों के लिए कौतूहल का विषय बने है। बच्चे बड़ों से सवाल करते है कि इतना भारी भरकम पत्थर लाया कैसे गया जिसका जबाब देना बड़े बुजुर्गों के लिए भी टेढ़ी खीर है। जनऊपुर निवासी श्रीकान्त पाण्डेय, प्रेमनारायन पाण्डेय, सिद्धनाथ पाण्डेय पुराने दिनों को याद करते हुए बताते है कि न तो अब पहले जैसी गन्ने की पैदावार रही न ही कोल्हू के माध्यम से पेराई करने का लोगों में उत्साह रहा। बताते है कि इसके लिए प्रशिक्षित बैलों की जोड़ियां हुआ करती थी जो अनवरत 8 से 10 घंटे तक कोल्हू के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते थे। उन्हें कोल्हू के बैल के नाम से जाना जाता था। कोल्हू अब इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गई।

 
 
 

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